Monday 7 October 2013

अथ पंकज पुराण: क क क किरण (पार्ट -2)

        किरण को यह पहली बार उसी विद्यालय में पता चला कि लड़की - लड़के भी आपस में दोस्त हो सकते हैं, जैसे लड़की - लड़की या लड़का - लड़का | किरण को यह भी वहीं पता चला कि आँख मारना कभी - कभी ईशारा करना से भी आगे की बात होती है| यह आगे की बात का पता तब चलता है जब किसी खास के आँख का मारना किसी विशेष के हार्ट का एक्सीलेटर बन जाए | 
        किरण भी तो लड़की ही थी न, इसीलिए इस मामले में वो भी अंतर्मुखी थी | मन में गुदगुदाहट तो होती और अकेले में होठों पर थिरकने भी लगता, लेकिन अपनी असामाजिक भावनाओं को ताबूत में बंद रखना उसने भी सीख लिया था, वहीं पर |
        वास्तव में होता ये है कि जो विचार, जो भावना रूपी बीज हमारे अवचेतन मस्तिष्क में अरसों तक दबी रहती है, वो उचित समय, उचित मौसम में धरा का सीना फाड़कर अवश्य ही अंकुरित हो जाती है | जब ये पौधा एक बार अंकुरित हो जाय और उसे समय - समय पर नियमित रूप से पोषित किया जाने लगे तो फिर उस विचार की, उस भावना की फसल लहलहाने लगती है | हरियाली ही हरियाली चारों तरफ | 
        किरण पहले पहल तो दो दिनों की भी छुट्टी होने पर भाग कर दरभंगा आ जाती | लेकिन धीरे - धीरे उसका आकर्षण बढ़ता गया - पढाई के प्रति, वहाँ के माहौल के प्रति और उसके दरभंगा आने का अंतराल भी बढ़ता चला गया | होता है, ये भी होता है, जब हम किसी के प्रति आकर्षित हो जाते हैं तो सब कुछ आगे - पीछे भूल जाते हैं, उस समय तक के लिए जब तक कि उस आकर्षण की चमक फीकी न पड़ जाए | 
        किरण को अच्छा लगने लगा था विद्यालय का माहौल | कोई  शक नहीं वो पढने में होशियार थी, लेकिन उम्र के साथ होने वाले शारीरिक परिवर्तन ने उसके मानसिक परिवर्तन में हलचलें पैदा कर दी थी | जिन लड़कों से वह बात - बात पर चिढती, झगडती उसका सान्निध्य सुखद लगने लगा था उसे | सभी छात्र - छात्रा जब जुटते थे तो गाना - बजाना, डांस भी हो जाता - "इट्स अ टाईम टू डिस्को" |
        दसवीं की परीक्षा के बाद एक महीने की छुट्टी, हॉस्टल बंद तो दरभंगा आना ही था | कैसे रो रही थी किरण सभी से गले मिल - मिलकर | उसको रोता देख तो ऐसे ही लग रहा था - डोली चढ़ के किरण ससुराल चली | "ए किरण इतना क्यों रोती है रे, हमलोग एक महीने के बाद तो फिर मिलबे करेंगे, कोई हमेशा के लिए थोड़े ही न जा रहे हैं, अब चुप हो जाओ नहीं तो कुट्टी कर लेंगे" | किरण चुप हो गई, होंठ फ़ैल गया, आँसू के दो बूँद ढुलक कर उसके होठों को तर कर दिया, कुछ जीभ पर भी चला गया, मीठा - मीठा स्वाद था उसका | ये तो सबको पता है कि दुःख के आँसू नमकीन होते है और ख़ुशी के मीठे लेकिन दोनों की शक्लें एक ही तरह की होती है तो पहचानने में थोड़ी समस्या आ ही जाती है |
       किरण के दोस्तों को नहीं पता था कि जिसके बिछड़ने के गम में किरण इतना विरहिणी हो रही है, इतना आँसू बहा रही है, यह सब छुट्टी के बाद धरा का धरा रह जाएगा | वैसे ये किरण को भी कहाँ पता था कि वो सदा के लिए अब दरभंगा जा रही है | इन चार - पाँच सालों में दरभंगा बहुत प्यारा हो गया है | इसके लिए तो नवोदय क्या, सूर्योदय - चंद्रोदय सबको भुला दूँ | "आई लव यू दरभंगा" - अपनी बालकोनी से किरण ने कहा हौले से - चुपके से और पंकज जी इधर खिड़की में कान लगाये हुए फुसफुसाते हैं - "क क क किरण, तू है मेरी किरण", डिट्टो शाहरुख़ की तरह बोलते हैं पंकज जी | 

1 comment:

  1. उम्दा कहानी आपकी इस उम्दा रचना को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -२२ निविया के मन से में शामिल किया गया है कृपया अवलोकनार्थ पधारे

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