Wednesday 23 October 2013

अथ पंकज पुराण: बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी (1)

        "किरण को जो आप देख लो एक बार बिल्कुल्ले बदल गई गई है, शकल - सूरत से लेकर चाल-व्यवहार तक पहचाने में नहीं आती" - बगल वाली शर्मा आंटी अंकल से कह रही थी "नमस्ते भी किया इस बार, पहले तो कैसे अकड़ी रहती थी …लगता है नवोदय में अच्छी पढाई होती है तभी तो, हमारा दुनू में से एक का भी हो जाता, पढने में तो कितना तेज है हमारा दुनू बच्चा … पक्का किरण के पापा ने कोई जुगाड़ भिड़ाया होगा" । 
        सामने में भले ही तन-मन-धन अर्पण कर दें सभी लेकिन अमीर का बच्चा आवारागर्दी न करे, सभ्य और सुसंस्कृत हो जाए तो पता नहीं कॉलोनी वाले क्यों जलने लगते हैं और हरेक सफलता में षडयंत्र सूंघते हैं । 
        किरण को प्यार है, अटूट प्यार, अपने माँ - बाप से, अपने भाइयों से, अपने दोस्तों से, अपने स्कूल से, अपने घर से, घर की बालकोनी से तथा उन सभी से जिससे उसका जुडाव है, कुछ न कुछ संबंध है । 
        "हमारे घर तो कभी आप आती ही नहीं, कल आइये न और किरण को भी साथ लाइयेगा, जरूर से"- जाते हुए शर्मा आंटी ने कहा था तो बड़ी खुश हुई थी किरण । ऐसा किसी ने पहली बार कहा था -  "किरण को भी साथ लाइयेगा" । मन ही मन सोचती है किरण - "ए किरण ससुराल से आई है क्या रे, कि शर्मा आंटी ने ऐसा कहा - किरण को भी साथ लाइयेगा, जरुर से" । ससुराल से तो नहीं आए हैं लेकिन कभी न कभी तो आयेंगे ही- होठों पर एक मुस्कान तैर जाती किरण के, आवाज नहीं निकलती, मम्मी पूछ ले तो क्या कहेगी और अब चेहरा लाल हो गया किरण का, एकदम सिन्दूरी लाल, होठों को जोर से दबा कर मुस्काई अब वो । 
        वैसे सच तो यही है कि जब लडकियाँ घर से दूर पढने के लिए चली जाती है और एक सामान्य अंतराल पर भी आती है तो घर-परिवार से लेकर आस-पड़ोस वाले भी उसके चेहरे पर ससुराल की चमक खोजते फिरते हैं और ऐसा व्यव्हार, ऐसा प्यार जैसे सचमुच बेटी ससुराल से ही आई हो । 
        किरण आज अपनी माँ के साथ शर्मा आंटी के घर जा रही है । अपनी सीढ़ी से खटाक-खटाक उतर रही है । अभी भी थोड़ा बहुत बचपना है ही किरण में और हो भी क्यों नहीं अभी तो दसवीं की परीक्षा दी ही है उसने । बचपना तो उमर के साथ बढती ही जाती है क्योंकि बचपन में तो लोग अपनी स्वाभाविकता को जीते हैं जबकि बचपना का अभिनय तो बचपन बीत जाने के बाद ही किया जा सकता है । और किरण बचपना क्यों न करे, माँ का ममत्व उसे बचपन की और आकर्षित करता है तो उसकी ;उम्र उसे गंभीर रहने के लिए मजबूर करती है । बालपन और गंभीरता है सुन्दर समायोजन है किरण में । इसीलिए जब वो सीढ़ी से उतरती है तो सैंडिल पटकते हुए खटाक-खटाक-खटाक और जैसे ही खिड़की से पंकज से को अपनी तरफ देखते हुए पाती है, झंडे की तरह लहराता हुआ दुपट्टा व्यवस्थित कर, गर्दन झुका कर दीवाल की ओट में छिपकर माँ की प्रतीक्षा करने लगती है। माँ अभी तक नहीं उतरी है नीचे, कितनी देर से प्रतीक्षारत है किरण - "उफ्फ माँ भी न, बगल में जाना है फिर भी कितना मेकअप करने लगती है"। जब आप किसी की प्रतीक्षा करते हैं तो घड़ी की सुईयों की भी हवा निकल जाती  हैं ।
        पंकज जी खिड़की पर जमे हुए हैं - कब निकलेगी ओट से, एक बार और देखते, सही से देख ही नहीं पाया, पता ही नहीं था इसमें कोई लड़की भी रहती है । पंकज जी को लग रहा है - हो न हो दीवाल में कोई दरवाजा है जिससे अन्दर चली गई होगी लेकिन, उतरी तो छत से है तब नीचे के दरवाजे से ऊपर कैसे जा सकती है, बिना सीढ़ी के, नहीं-नहीं छुपी हुई है - पंकज जी अब भी जमे हुए हैं अपनी खिड़की पर ।   ………… क्रमशः 

Monday 7 October 2013

अथ पंकज पुराण: क क क किरण (पार्ट -2)

        किरण को यह पहली बार उसी विद्यालय में पता चला कि लड़की - लड़के भी आपस में दोस्त हो सकते हैं, जैसे लड़की - लड़की या लड़का - लड़का | किरण को यह भी वहीं पता चला कि आँख मारना कभी - कभी ईशारा करना से भी आगे की बात होती है| यह आगे की बात का पता तब चलता है जब किसी खास के आँख का मारना किसी विशेष के हार्ट का एक्सीलेटर बन जाए | 
        किरण भी तो लड़की ही थी न, इसीलिए इस मामले में वो भी अंतर्मुखी थी | मन में गुदगुदाहट तो होती और अकेले में होठों पर थिरकने भी लगता, लेकिन अपनी असामाजिक भावनाओं को ताबूत में बंद रखना उसने भी सीख लिया था, वहीं पर |
        वास्तव में होता ये है कि जो विचार, जो भावना रूपी बीज हमारे अवचेतन मस्तिष्क में अरसों तक दबी रहती है, वो उचित समय, उचित मौसम में धरा का सीना फाड़कर अवश्य ही अंकुरित हो जाती है | जब ये पौधा एक बार अंकुरित हो जाय और उसे समय - समय पर नियमित रूप से पोषित किया जाने लगे तो फिर उस विचार की, उस भावना की फसल लहलहाने लगती है | हरियाली ही हरियाली चारों तरफ | 
        किरण पहले पहल तो दो दिनों की भी छुट्टी होने पर भाग कर दरभंगा आ जाती | लेकिन धीरे - धीरे उसका आकर्षण बढ़ता गया - पढाई के प्रति, वहाँ के माहौल के प्रति और उसके दरभंगा आने का अंतराल भी बढ़ता चला गया | होता है, ये भी होता है, जब हम किसी के प्रति आकर्षित हो जाते हैं तो सब कुछ आगे - पीछे भूल जाते हैं, उस समय तक के लिए जब तक कि उस आकर्षण की चमक फीकी न पड़ जाए | 
        किरण को अच्छा लगने लगा था विद्यालय का माहौल | कोई  शक नहीं वो पढने में होशियार थी, लेकिन उम्र के साथ होने वाले शारीरिक परिवर्तन ने उसके मानसिक परिवर्तन में हलचलें पैदा कर दी थी | जिन लड़कों से वह बात - बात पर चिढती, झगडती उसका सान्निध्य सुखद लगने लगा था उसे | सभी छात्र - छात्रा जब जुटते थे तो गाना - बजाना, डांस भी हो जाता - "इट्स अ टाईम टू डिस्को" |
        दसवीं की परीक्षा के बाद एक महीने की छुट्टी, हॉस्टल बंद तो दरभंगा आना ही था | कैसे रो रही थी किरण सभी से गले मिल - मिलकर | उसको रोता देख तो ऐसे ही लग रहा था - डोली चढ़ के किरण ससुराल चली | "ए किरण इतना क्यों रोती है रे, हमलोग एक महीने के बाद तो फिर मिलबे करेंगे, कोई हमेशा के लिए थोड़े ही न जा रहे हैं, अब चुप हो जाओ नहीं तो कुट्टी कर लेंगे" | किरण चुप हो गई, होंठ फ़ैल गया, आँसू के दो बूँद ढुलक कर उसके होठों को तर कर दिया, कुछ जीभ पर भी चला गया, मीठा - मीठा स्वाद था उसका | ये तो सबको पता है कि दुःख के आँसू नमकीन होते है और ख़ुशी के मीठे लेकिन दोनों की शक्लें एक ही तरह की होती है तो पहचानने में थोड़ी समस्या आ ही जाती है |
       किरण के दोस्तों को नहीं पता था कि जिसके बिछड़ने के गम में किरण इतना विरहिणी हो रही है, इतना आँसू बहा रही है, यह सब छुट्टी के बाद धरा का धरा रह जाएगा | वैसे ये किरण को भी कहाँ पता था कि वो सदा के लिए अब दरभंगा जा रही है | इन चार - पाँच सालों में दरभंगा बहुत प्यारा हो गया है | इसके लिए तो नवोदय क्या, सूर्योदय - चंद्रोदय सबको भुला दूँ | "आई लव यू दरभंगा" - अपनी बालकोनी से किरण ने कहा हौले से - चुपके से और पंकज जी इधर खिड़की में कान लगाये हुए फुसफुसाते हैं - "क क क किरण, तू है मेरी किरण", डिट्टो शाहरुख़ की तरह बोलते हैं पंकज जी | 

Thursday 3 October 2013

अथ पंकज पुराण: क क क किरण (पार्ट -1)

         कोई पूछता नाम, नाम क्या है आपका? फ़िल्मी स्टाईल में वो बोलती "किरण, किरण भारद्वाज" | पंकज जी तो एकदम शाहरुख़ बन जाते "क क क किरण, वो है मेरी किरण" |
        कान्वेंट स्कूल की छात्रा, फर्राटेदार अंग्रेजी, ग्यारहवीं में बायलोजी, डॉक्टर बनने की चाहत, अपनी से ज्यादा मम्मी - पापा की | तीन भाइयों की अकेली, सबसे छोटी, लाडली बहन किरण |
        भाई नं 1 - मुंबई में किसी एमएनसी में इंजीनियर, विवाह योग्य उम्र | सब तो यही कहते कि शादी वादी सब कर धर के बैठा है, चूना लगा दिया बाप को | भाई नं 2 - केरल की किसी सरकारी कॉलेज में मेडिकल स्टूडेंट | दिखने में स्मार्ट, पहली बार मूंछ छिला कर आया तो कॉलोनी वाले कहते "नालायक है, बाप जिन्दा है और मूंछ छिला कर आया है शरम भी नहीं आती" | भाई नं 3 - पटना में लगातार तीन सालों से इंजीनियरिंग की तैयारी |  इस बार निकलने का चांस है, मम्मी - पापा को तो हरेक बार यहीं आश्वासन मिलता |
        पिता, फॉरेस्ट विभाग में रेंजर थे, रांची में | अकूत काला धन से दरभंगा का घर चमका रखा था | पायदान तक पर सफ़ेद मार्बल लगा रखा था, झक्क सफ़ेद, दूधिया और अहाते में कई तरह के फूल - अड़हुल, कनेर, गुलाब और एक जो छोटा - छोटा फूल होता है उजला - उजला, डंठल नारंगी, सुंगंधित, सुबह - सुबह जमीन पर ढेर बिखडा रहता है, वो भी था | 
        माँ, असाधारण सा दिखने की कोशिश करने वाली एक साधारण सी महिला थी | चेहरे पर अमीरी चमकता रहता और चलती तो चाल में एक गर्व झलकता | कॉलोनी के लड़के यदि दिन में चार बार भी देख ले तो - "आंटी नमस्ते - आंटी नमस्ते" कर आशीर्वाद लेते नहीं अघाते और आंटी भी भाव - विभोर हो जाती |
       बचपन में किरण पढने में बहुत होशियार थी | है तो अभी भी लेकिन अब बचपन बीत चुका है और वो विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण होने वाले उमर में पहुँच चुकी है, परिणामस्वरूप उसकी होशियारी में भी विभाजन हो गया है |
        घर में सबसे छोटी और पैसा भरा पड़ा था घर में , अतः इनकी हरेक इच्छा जुबान से फिसली नहीं की पूरी हो जाती, नो खीच - खीच, नो टेंशन | इसीलिए स्वाभाव से थोड़ी जिद्दी, थोड़ी अल्हड़ लेकिन थी तो पढने में होशियार तो सात खून माफ़ |
        छठी क्लास में नवोदय विद्यालय की परीक्षा में पास हुई | परिवार में सब खुश थे, बहुत खुश और वो भी थी, लेकिन रोये ही जा रही थी | क्यों, क्योंकि अब उसे दूर रहना पड़ेगा अपने घर से चूँकि नवोदय विद्यालय तो दरभंगा शहर से दूर था | जाने के समय में तो खूब पैर पटक - पटक कर विलाप कर रही थी | छठी क्लास में तो सभी बच्चे ही होते हैं न, खास कर वो जो बचपन से अपने परिवार के साथ रहकर पढ़ते हैं | लेकिन जैसे ही आप पढ़ने के लिए गृहत्याग करते हो तो ज्ञान में वृद्धि यकायक होने लगती है और आप अल्प समय में ही अनुभवी हो जाते हैं | हाँ, ये अलग बात है की सभी का ज्ञान - क्षेत्र अलग - अलग होता है, स्वभावनुसार |
        इस प्रकार राजकुमारी किरण हॉस्टल पहुँच गई | "ऊंह, यहाँ पर तो टीवी भी नहीं है, बेड कितना पतला है, खाना भी बेकार है, पता नहीं सारे स्टूडेंट कैसे खाते हैं, छीह"- आरंभ में यही हाल रहा किरण का | लेकिन धीरे - धीरे किरण फलक से उतर कर जमीन पर चलने लगी, गुलाबजामुन से आम हो गई | होता है भाई, जब परिस्थितियाँ ही अंगूठा दिखाने लगे तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है | .............क्रमशः