Sunday 24 November 2013

अथ पंकज पुराण : "प्रेम गली से हाइवे तक" (1)

        आजकल पंकज जी का गेट अधिकांशतः बंद ही रहता है, कहते हैं कि पढाई का टेंसन हो गया है इसीलिए वो सीरियस रहते हैं और हमलोग उनके सीरियसपन को देखकर टेंसनाइज हो गए हैं |    
        मुझे क्या पता कि किरण छुट्टी में भी इतना सीरियस रहने वाली लड़की है | ग्यारहवीं में एडमिशन से पहले ही बुक लेकर अपनी बालकोनी में जमी रहती है | बिस्किट का रैपर फेंकने के लिए जैसे ही खिड़की खोला कि देखता हूँ किरण का नयन पंकज जी की खिड़की पर मासूम आघात कर रहा है | पहली बार पता चला कि पढाई भी संक्रामक रोग की तरह होती है लेकिन यहाँ ये नहीं पता कि किसका संक्रमण किसमे फैला है | 
        किसी भी संक्रमण का यथोचित समय में उपचार न किया जाय तो वह कैंसर का रूप पकड़ लेता है और पंकज जी पर हमारा कोई उपचार कारगर हो ही नहीं रहा था | हमलोगों ने कितना समझाया - प्यार के बीमार को उतार मेरे मनवा - लेकिन पंकज जी अपनी बीमारी से प्यार करते हैं और उन्हें बीमारी पैदा करने वाली से तो अटूट प्यार है | 
        "आप भी गजब करते हैं पंकज जी, राह चलते जिस लड़की को देखा आपको प्यार हो जाता है वो भी अटूट वाला प्यार" | पंकज जी जानते हैं हमलोग समीकरण समझ गए हैं लेकिन वो इश्क करते हैं मगर बताते भी नहीं और छुपाते भी नहीं - "अरे यार तुमलोग तो जानते हो मैं खिड़की पहले से ही खोल के रखता हूँ और मैंने थोड़े ही किसी को बालकोनी में बुलाया है, परीक्षा भी सर पर है तो अब से मटरगस्ती तो बंद करना ही पड़ेगा न"| हमलोग हथियार डाल जाते पंकज जी के इस डिफेंसिव स्ट्रोक पर क्योंकि पता है - वो झूठ नहीं बोलते भले ही हकीकत छुपा ले | 
        अब हमारी खुफिया टीम को पकड़ना था रंगे हाथों, पंकज जी को नयनों से नयनों का गोपन प्रिय सम्भाषण करते हुए | मैंने और राजा ने इस गुरुतर कार्य को सफल बनाने के लिए एक कार्ययोजना बनानी आरम्भ कर दी |
        मैं और राजा दोनों एक ही क्लास में पढ़ते थे, एक ही विषय पीसीएम के छात्र थे लेकिन स्कूल अलग-अलग था हम दोनों का | अपना अध्ययन कार्य छोड़कर दूसरों की गतिविधियों पर नजर रखना और अपनी खुफियागिरी के लिए खुद ही अपनी पीठ थपथपाना हमलोगों का फितूर बन गया था | दसवीं तक क्लास में मुझे ही मॉनिटर बनाया जाता था | क्लास में अनुशासन बनाये रखना और गैर-जिम्मेदाराना, असभ्य हरकत करने वालों पर नजर रखने की आदत शायद मेरे व्यक्तित्व में ही घर कर गई थी जो समय और स्थान परिवर्तन के बावजूद भी हमारे शरीर में अड्डा बनाये बैठा हुआ था | इसीलिए सारा काम पेंडिंग में डालकर दूसरों की गतिविधियों पर नजर रखने की छोटी से छोटी गुंजाईश होते ही हम पूरी मुस्तैदी से मॉनिटर बन जाते हैं, अभी भी | 
        जब हमारी यह छोटी खुफिया इकाई ने पंकज जी को रंगे हाथों पकड़ा था किरण का ईशारों-ईशारों में दिल लेते हुए तो हमने उन्हें कुछ नहीं कहा था उस समय बल्कि किरण के ईशारे की कॉपी - सेव कर ली थी दिमाग में और फिर जब उनका ईशारा-कांड समाप्त होने के बाद वही ईशारा मैंने उनपर पेस्ट करना चालू कर दिया था तो कैसे लाजवंती बन गए थे पंकज जी | चेहरे का भाव तो कॉलोनी के ही उस चोर की भांति हो गया था जो चोरी कर लेने के बाद भागते हुए पकड़ा जाता है - 
"हे हे हे हे अरे तुमलोग भी न, यार बहुत अच्छी है किरण नवोदय में पढ़ती है"- पंकज जी सफाई देने लगे | 
"अच्छा तो लगता है पूरा इतिहास भूगोल छान कर बैठे हैं साहब"
"इतिहास-भूगोल कुछ भी नहीं पता है मुझे, वो बराबर देख रही थी इधर तो मैंने पूछा था एक दिन बस"
"आपके 'इधर' ही क्यों मेरे 'इधर' क्यों नहीं पंकज जी, खैर छोडिये और ये बताइए कि सेटिंग कैसे करते हैं हो ?"
        पंकज जी चिढ़ से गए हमारे इस औत्सुक्य मिश्रित बेतुके सवाल पर और यह मुझे आज तक पता नहीं चला कि कोई प्रेमी इस वृत्तांत को क्यों नहीं शेयर करता है किसी से | अनुमान ही लगा सकता हूँ कि सच्चा प्रेमी यह राज कभी नहीं खोलते हैं शायद और जो इस वृत्तांत को चटकारे ले लेकर स्वंय को तीसमारखां दीखाना चाहते हैं वो निःसंदेह सच्चा प्रेमी नहीं हो सकता, उसके लिए तो प्रेम उम्र के एक विशेष पड़ाव पर मनोरंजन का सर्वजनदुर्लभ साधन ही हो सकता है मात्र  |   ....................... क्रमशः 
       
        

Friday 8 November 2013

अथ पंकज पुराण: बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी (2)

(कहानी में तारतम्यता बनाए रखने के लिए कृपया सर्वप्रथम - "बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी (1)" पढ़ें http://vivekmadhuban.blogspot.in/2013/10/1_23.html )
        
        माँ उतर रही है धीरे - धीरे अपने सैंडिल से सीढियों को पुचकारते हुए | चाल और चेहरा दोनों में गर्व झलक रहा है | किरण दीवाल की ओट से निकल माँ के साथ हो लेती है और ग्रिल से बाहर निकलने लगती है | दोनों की पीठ पंकज जी की खिड़की की तरफ है | किरण की आँख ग्रिल की कुण्डी पर है और ध्यान पंकज जी की खिड़की पर | अपनी पीठ पर दो आँख गड़ी हुई महसूस कर रही है, मन में गुदगुदी होती है और गर्दन नत हो जाती है | 
        ग्रिल से बाहर निकल किरण ने कुण्डी लगाई और खिड़की की तरफ चोर नजरों से देखा एक बार, पंकज जी मैदान में डटे हुए हैं | पहली बार दोनों की आँखें चार हुई और इधर किरण पुनः गर्दन नत कर शर्मा आंटी के घर के लिए माँ के पीछे हो ली | पंकज जी दोनों हाथों से अपने हार्ट को दबाये खिड़की के नीचे दुबक गए | किसी लड़की से जब आँखों ही आँखों में बाते होती है तो मन पुलकित क्यों हो जाता है ? बातें न भी हो, मौन भी क्यों धड़कन बढ़ा देता है? अजीब विरोधाभास है- धड़कन बढ़ भी जाती है लेकिन हार्ट अटैक का खतरा तक नहीं होता | उत्तर - पता नहीं - पंकज जी अपने ही प्रश्न के आगे निरुत्तर थे | 
        शर्मा आंटी के घर पहुँचकर मम्मी ने कॉलबेल का स्विच दबाया, पाँच मिनट तक किसी ने भी कोई उत्तर नहीं दिया अन्दर एकदम सन्नाटा पसरा रहा | शायद बाहर स्विच तो था लेकिन अन्दर बेल ही ख़राब थी | ग्रिल की कुण्डी खटखटाई तो अन्दर से एक सुरीली आवाज जिसमें जानबूझकर भारीपन लाई गई थी - "कौन है, इतना जोर से खटखटा रहा है ग्रिल को, तोड़ ही दो इससे अच्छा" - शर्मा आंटी की आवाज थी ये - "अरे आप, आइये-आइये, आ जाओ किरण बेटी, ये पता नहीं कौन सब आ जाता हैं और जोर-जोर से पीटने लगता हैं, हथौरा चला रहे हों जैसे, बुरा मत मानियेगा"- शर्मा आंटी शर्मिंदा होकर कुछ दीन स्वर में बोली थी | किरण की माँ समझ रही थी इस बात को | उन्हें भी तक़रीबन प्रतिदिन इस तरह की मुसीबतों से दो-चार होना पड़ जाता था - "बुरा क्यों मानेंगे भला, हमारे ग्रिल को तो लोंगो ने पीट-पीट कर बदरंग बना दिया है, लेकिन अब तो कॉलबेल लगवा दी है मैंने फिर भी लोगों को दिखता ही नहीं" | "हाँ बहुत अच्छा किया, मैं तो इनसे कह-कहकर थक गई कॉलबेल ठीक करवाने के लिए पर ये मेरी सुनते ही कब हैं"- आंटी ने प्रतिउत्तर में कहा - "अच्छा एक मिनट बैठिये मैं चाय बना लाती हूँ" |
"रहने दीजिये चाय-वाय कुछ ही देर में चले जायेंगे इनका टेलीफोन आने वाला है"
"नहीं-नहीं बिना चाय-नाश्ता के नहीं जाने दूंगी मैं, ऐसे भी आप आती ही कब हैं और किरण बेटी भी आई है आज " - शर्मा आंटी इतना कह झटपट किचन में घुस गई |
        किरण को समय काटना पहाड़ सा लग रह है | सोच रही कि कितनी जल्दी यहाँ से उड़कर अपनी बालकोनी में चली जाती | मन ही मन आंटी को कोसती है - "शर्मा आंटी भी न कितना व्यवहारिक होने लगती है, चाय-नाश्ता तो सभी अपने घर से ही करके आते हैं" | किरण बहुत व्यग्र हो रही है, बार-बार घड़ी देख रही है, उठक-बैठक कर रही है किन्तु माँ और आंटी किरण के इस मानसिक उथल-पुथल से अनभिज्ञ कॉलोनी की सारी महिलाओं का कच्चा-चिट्ठा टी-टेबल पर फैलाती जा रही है |
        खैर जैसे-तैसे कॉन्फ्रेस समाप्त हुई और समय का घोडा लंगड़ाते ही सही वह फासला भी तय कर लिया जब किरण अपनी बालकोनी में कुर्सी लगाकर और हाथ में पुस्तक लेकर ऐसे ही जम गई जैसे खिड़की पर पंकज जी |
        ये तो हो गया भैया - फर्स्ट साईट लव वाला मामला | निष्कर्ष यही निकला कि किरण न केवल पढने में होशियार है बल्कि पद्मावत की नागमती की तरह "दुनिया-धंधा' में भी कम बुद्धिमान नहीं है | इसीलिए तो पंकज जी के आँख के इशारे को पलक झपकते ही आत्मसात कर लिया उसने | कहा भी गया है - बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी | 

(आपका बहुमूल्य कमेन्ट हमारे लेखनी की जीवन-शक्ति है)