Wednesday 31 August 2011

बचपन के दिन याद है

खेला करते छुपन-छुपाई
छुप जाता कहीं कोने में ,
खेल हुआ कब बंद क्या पता ?
खेल बीतता सोने में,
काश लौट जाते उस क्षण में
 ईश्वर से फरियाद है,
वह मौजूंपन वह अल्हरपन
बचपन के दिन याद है .

क्या होता है भूख, पता है ?
पता नहीं चल पाता था,
जब-जब होती जीत हमारी
तब शरीर बल पाता था,
न कोई राजा न कोई रानी
बस केवल बारात है,

वह मौजूंपन वह अल्हरपन
बचपन के दिन याद है .

खेल - खेल में होती कुट्टी 
वह तुनक - तुनक दोषारोपण ,
समय आ गया खेल का जब 
वह पुलक -पुलक बंधन टूटन,
पुलक उठा हु याद हुए  जब
पुलकन के संवाद है ,
वह मौजूंपन वह अल्हरपन
बचपन के दिन याद है .

विहगों की चहकन के पीछे
भी विहगा बन जाते थे,
नभ में न उड़ने के दुख को
भूल बहुत सुख पाते थे,
मिट्टी के घर हुए तो क्या है
सारा घर आबाद है,

वह मौजूंपन वह अल्हरपन
बचपन के दिन याद है .


लोड़ी माँ की बड़ी सुरीली
मुझे सुलाया जाता था,
मैं माँ की गोदी का राजा
मुझे झुलाया जाता था,
पता नहीं होता था मुझको
क्या पंचम क्या नाद है,

वह मौजूंपन वह अल्हरपन
बचपन के दिन याद है .



Sunday 28 August 2011

वाह-वाह भ्रष्टाचारियों

भ्रस्टाचार रूपी नौका पर सवार
सफेदपोशों की काली करतूत
करती है विकास को अवरुद्ध ,
डालती है सामाजिक प्रगति में बाधा 
रूढ़ परम्पराओं का समर्थन कर 
जिसने अपना हित साधा .

घुन बनकर प्रशाषण की निष्पक्षता से
जनता के विश्वास  की जड़ों को
करती है खोखला,
बनाती जाती है प्रशाषण को भ्रस्टाचार का घोसला,
क़ानूनी शाषण की जड़ों को
करता है कमजोड,
अजीब विडम्बना है जनता इन्ही के हाथों मजबूर,
नियमों के साथ करता है खिलवाड़ 
उसे तोड़ता-मरोड़ता है,
देश का धन स्पंज की तरह चूसकर
स्विस बैंक में निचोड़ता है.
हतोत्साहित करता है पूंजी निवेश को
संक्रामक की तरह कब्जाती जा रही है देश को.
काले बाजार की अर्थव्यवस्था पनपाता है
राष्ट्रीय हितों की राह में रोड़े अटकाता है.
बूट से ठोकर मारकर मारकर हटाने वाला 
कोई नहीं है,
बिमाड़ी है संक्रामक
सब इसकी चपेट में आता जाता है.
राष्ट्रीय सुरक्षा की नीव में
लगाता जा रहा है पलीता,
वही सफेदपोश अपनी काली जुबान से
कभी लिया था शपथ
काले हाथों से पकड़कर गीता,
सफेदी से पुता हुआ काली करतूत
देश को कर रहा है बर्बाद,
आम जनता मौत के मुंह तक
हो गई है तबाह,
वाह-वाह देश के भ्रष्टाचारियों वाह।

Saturday 27 August 2011

भिन्नता

पावस की तीव्र उमस में,
भूली भटकी वायु की एक गुच्छ ने,
खिरकी से घर में कदम रखा,
ईस्वर को धन्यवाद् दे हमने ,
उसे सर आखों पर बिठा लिया,
नाक ही क्यों,
रोम रोम से उसे चूसा लिया.
यही क्रिया दुबारा शरद में हुई,
रोम कम्पित हो उठा ,
और मैं बना छुई -मुई,
ईस्वर को कोष मैंने,
झट रजाई खीच लिया,
बदन को ढक कर मैंने,
मुट्ठी को भी भीच लिया.