Monday 27 August 2012

कांटे की व्यथा कथा


फूलों की कोमल पत्ती को
तोड़ न ले जाए माली,
दिन-रात यहाँ करता रहता
हूँ इसीलिए पहरेदारी|

विश्राम मैं कभी करू न 
सहूँ मैं झंझों के झोके,
खड़ा हमेशा रहता हूँ
आहत का क्रंदन उर लेके|

यह पौध हमें क्यों पाल रहा
यह कठिन परीक्षा साल रहा,
पांडव जैसा हो गया गति 
लुट गयी हजारों द्रौपदी,
आते जब कोई चुनने को
मैं मौन खड़ा देखा करता,
अपने क्रंदन और पीड़ा को
न उसके कर में हूँ भरता,
अब कौन कृष्ण कहलायेगा 
गीता का सार सुनाएगा,
विष मेरे शीर्ष भी उगलेंगे 
कोमल पत्ती सुरभित होंगे|

पर एक बात अब भी चुभता
ऐसी सुन्दरता ही क्या,
कर सके जो न अपनी रक्षा
अपनी रक्षा - अपनी रक्षा| 

Wednesday 8 August 2012

बादल उमड़ा

बादल उमड़ा,
मुझे किसी ने याद किया क्या?
बादल गरजा,
विरह की मारी याद किया क्या?
बरसा बादल,
मुझे लगा वह मीरा बनकर नाच रही है,
विह्वलता में प्रेम गहनता जाँच रही है,
बूंद बरस कर मिट्टी के तन पोर-पोर में समा गया है,
सोंधी खुशबू भूली नेह को जगा गया है,
हरी दूब जो झुलस गयी थी हरा हो गया,
मीरा के नटनागर बनने खड़ा हो गया|