Saturday 7 April 2012

छाया ने कही

भरी दोपहरिया मैं चल रहा था अनन्त पथ पर,
मेरे पीछे कोई आ रही है,
चुपचाप निःशब्द,
मैंने कहा - क्यों मेरे पीछे पड़ी है?
मैं अकेले ही पूरे रस्ते काट लूंगा
तुम्हे इससे क्या फायदा?
ओ मेरी छाया बता
तुम मुझे छाह भी तो नहीं दे सकती?
प्रतीक्षा उत्तर आने की विफल हुई
वह निरुत्तर ही रही, फिर भी
बहुत कुछ ऐसी बाते कह गयी
की मैं खुद ही निरुत्तर हो गया।
मैं कुछ भी करू तुम्हे इससे क्या मतलब
तुम्हे इससे क्या मतलब
की तुमसे किसी को मतलब है।
क्या तुम अपनी मंजिल के पीछे नहीं?
मैं तुम्हारे पीछे हूँ
तुम मेरी मंजिल हो,
और मैं कर्मरत हूँ
जब तक मैं तुम में मिल ना जाऊं
मैं प्रयासरत रहूंगी।
तुम अपनी मंजिल से मिलो
और मैं अपनी मंजिल से।
सोच कर की शायद
इसे ही दिव्यज्ञान कहते हैं
मैं अपने अनंत पथ पर अग्रसर हो गया।