Sunday 29 January 2012

निश्चल सज्जनता

राहे सूनी सब दूर - दूर 
सब छोड़ मुसाफिर चले गए,
और सज्जनता उपहास बना
जब तब देखो हम छले गए।

अनजान डगर पर निकले थे 
थे दिल के हम भोले-भाले
वह चोर लुटेरा ठग निकला 
जिस - जिसको समझे रखवाले,
सब करते रहे कंदुक क्रीडा,
मच्छर  की भाँति मले गए।

यह सज्जनता और भोलापन
अब अवगुण कहते सब जग में,
पर सोच मुसाफिर दुर्जन तो 
मिलते ही रहेंगे पग-पग में,
जब दृढ दुर्जन दुर्जनता पर 
तो मैं सज्जनता क्यों छोडूँ,
जानो दो मलो नहीं हाथ कभी
यह सोच, सही है भले गए।



Thursday 26 January 2012

एक अनुभूति

तुम्हारा सामीप्य मुझे देता है
जाड़े की धूप का सा अहसास,
नहीं - नहीं एक अनुभूति है खास,
जिसे पाने के लिए
ऋषि-मुनि और साधुगन
पर्वत कंदराओं में करते है तपस्या,
अपने ईष्ट से मिलन की ख़ुशी में,
जैसे साडी नदियाँ
सूफियों की तरह करती है किल्लोल,
पेड़- पौधे और फूलों के चेहरे
बसंतागमन के समय जिस तरह,
हो जाता है खुशियों से सराबोर,
जिसे पाने के लिए हवायें
हार-हार करती है चित्कार,
ग्रह अपने पथ से अनजान
उसे पाने के लिए ही,
एक ही पथ पर लगाता जा रहा है चक्कर, 
सीपियाँ सालों-सालों तक
अपना सम्पुट खोले रहती है, 
कोयलों की कूक नहीं होता है उसका गान,
क्या तुम्हे नहीं पता,
बसंत में कूक कर वो क्या कहती है?
कहती है, तुम्हारा असामिप्य
मुझे करता है निराश, 
तुम क्यों नहीं रहते,
हरवक्त, हमेशा, हमारे ही पास?

Saturday 7 January 2012

जो तुम कहो

 आज फिर सितार को संवार लूँ
जो तुम कहो,
उँगलियों को तार पे बुहार दूँ
जो तुम कहो|

छेड़ दू वह राग जोकि
शांत जग का गान है,
चैन चहुँ चाहिये
यह गान ही तो प्राण है,
माह चली उष्ण की, फुहार दूँ
जो तुम कहो|

राग उपजे तर्जनी से
या सितार तार से,
यह मधुरतम कल्पना
सहयोग कोमल प्यार से,
जग भयाकुल मैं सभी को, प्यार दूँ
जो तुम कहो|

कुछ भी करूँ और न डरूं
जब तेरा आदेश हो,
तब कार्य भी होंगे सफल
जब पूछ श्री गणेश हो,
ले इम्तिहान स्वयं को, निसार दूँ
जो तुम कहो|
आज फिर सितार को संवार लूँ
जो तुम कहो|



स्नेह और प्यार

 स्नेह से  पूरित,
प्यार से भरा,
एक छोटा सा दिया;
तुम्हारे आँगन के
चौबारे पे,
मैंने रख दिया|

प्रेम मौन है

प्रेम मौन है -
उड़ जाते पिंजरे का पंछी,
बता दिया कब कहाँ कौन है|

अपना कर जिसने भी प्यार को
लेप लगाकर भरा दरार को,
तुच्छ हृदय के कटु  वचनों को
सर पर लिया सब लतार को;

दूरी और बढती खाई को
पाट दिया है अपनेपन से
है आमंत्रण सब के दुःख को
अपने मन से बड़े मगन से;
मेरे लिए तो सब अपना है
तुम्ही बता यहाँ दूजा कौन है?

क्यों बोलूं मैं प्रेम पथिक हूँ
माले का मोती स्फटिक हूँ,
यह स्वार्थ है लिप्सा है यह
मुझे तो बस ऐसा ही लगता
तुम्हे क्या लगता है तूहीं कह;
मेरे लिए तो जीवन सत्य है
मृत्यु तो लघु लघुम गौण है|

Tuesday 3 January 2012

पत्ता मिट्टी बन गया

हरे पत्ते
धीरे - धीरे
पीले पड़े.

पीले पत्ते
हवा के संग
गिर पड़े.

गिरे पत्ते
धीरे - धीरे
गलने लगे.

गले पत्ते
मिट्टी में मिल
होने लगे मिट्टी.

और कुछ समय बाद
अंतर हो गया ख़त्म
पत्ता मिट्टी बन गया.

एक बुराई

मुझमे एक बुराई है और
एक बुराई तुझमे भी,
मैं सच को भी तुम्हारे
कह देता हूँ झूठ है,
और तुम अपने झूठ को
कहते रहते हो सच.

और अंततः,
स्वीकारता हूँ मैं तुम्हारे सच को,
किन्तु तुम अब भी तुले हो
अपने झूठ को
मनवाने के लिए सच,
बस मेरा तो इतना ही कहना है
इस बुराई से
जितनी जल्दी हो सके बच.