मौसम में कुछ बदलाव सा आभास हो रहा है| सर्दी का महीना
धीरे – धीरे बूढा होता जा रहा है| वातावरण में नमी की कमी महसूस होने लगी
है| इस मौसम में शरीर की त्वचा भी वातावरण से सांठ – गांठ करते हुए खुश्क हो जाती
है| यह अजीब सा रूखापन शरीर के साथ मन को भी चिड़चिड़ा कर देता है| नमी के संतुलन
को बनाए रखने के लिए या यूँ कहे की बॉडी लोशन का प्रयोग करके हम प्रकृति की आँखों
में धूल झोंक कर अपने शारीरिक मानसिक रूखापन का अंत कर देते हैं|
आज प्रकृति से मेरी मुठभेड़ हो गई| ऑफिस जाने से पहले मैंने
जो लोशन लगाया, वह घर पहुँचने से पहले ही दगा दे गई| दुबारा शाम में लोशन लगाना
पड़ा| जब मैं अपने कठोड़ त्वचा को विजयी बना रहा था तो अचानक मस्तिष्क में कौंध सा
गया कि कभी मैं इस महंगे, सुगंधित और जाने कौन–कौन से शुद्ध–अशुद्ध पदार्थों
का सम्मिश्रण कर बनाए गए इस लोशन की जगह सौ फ़ीसदी शुद्ध सरसों का तेल लगाया करता था|
वह तेल चूँकि पड़ोस के गाँव में ही पेड़ाई की जाती थी इसीलिए उसकी शुद्धता पर कोई शक
नहीं था| गाँव में जब तेलिन “तेल लेब हो” चिल्लाते हुए तेल बेचने आती तो हमलोग
वहाँ दौड़कर पहुँच जाते थे और तेल की शुद्धता की परीक्षा के बहाने सर से पैर तक तेल
लगा लेते थे और अंत में निर्णायक की भूमिका में आ ये कहकर की “तुम्हारे तेल में
मिलावट है हम नहीं खरीदेंगे” घर की तरफ सीना फुलाकर ऐसे निकल पड़ते जैसे की मैदान
मार लिया हो|
किसी विशेष मौसम में त्वचा खुश्क होने की समस्या मुझे बचपन
से ही रही है| समस्या तब ज्यादा विकराल हो जाती थी जब मुंडन, जनेऊ, विवाह या ऐसे ही
किसी विशेष मांगलिक उत्सव में किसी अतिथि के घर मुझे ही अपने घर का प्रतिनिधित्व
करने के लिए भेज दिया जाता था | मैं बहुत विकट संकट में फँस जाता था| एक तो आरंभ
से ही शर्मीला रहा हूँ और किसी से बातचीत करने में कतराता हूँ, खास कर नए लोगों से, दूसरी, मेरी
जालिम त्वचा| मैं ईश्वर से प्रार्थना करता कि हे ईश्वर किसी तरह छुपा कर सरसों
तेल की व्यवस्था करवा देना| लेकिन भगवान निर्बलों की क्यों सुने भला, वो तो
उसकी सुनते हैं जो चालीस मन के सोने का मुकुट चढ़ाए या करोड़ो का गुप्त दान अर्पित
करे| वह सरसों का तेल ही था जो मुझ असामान्य मनुष्य को सामान्य बनाए रखने में मदद
करता था| आखिर मैं वहाँ कैसे कह पाता कि मुझे बदन में लगाने के लिए सरसों का तेल
दो| अपनी छोटी उम्र की बड़ी इज्जत का मुझे बखूबी ख़याल था| बच्चों की आत्मा बड़ी
होती है, मैं छोटा था तो मेरी भी आत्मा बड़ी थी, लेकिन मैं जैसे–जैसे बड़ा होता
गया हूँ, गाँव से शहर की ओर पलायन उसी क्रम में होता रहा है– गाँव से छोटा शहर,
फिर उससे बड़ा, और बड़ा, बहुत बड़ा और हमारी आत्मा, हमारे शरीर और निवास स्थान के
विपरीत जाते हुए छोटी होती गई| शर्मीलापन तो न जाने कब ख़त्म हो गया और अब तो
बेगैरत की हद तक निर्लज्ज हो गया हूँ|
मेरी त्वचा ने लोशन का स्वाद पहली बार तब चखा था जब मैंने पढाई
के सिलसिले को जारी रखने के लिए गाँव से पहली बार एक छोटे से शहर में अपना डेरा
जमाया| एक महीने का खर्च घर से एक ही बार में मिल जाया करता था| खर्च का हिसाब
घर में कुछ इस तरह दिखाते थे कि उसमे लोशन पर खर्च दिखे भी नहीं और गृह सरकार से
उसके लिए मुद्रा पारित भी हो जाए| लोशन की तरफ आकर्षण के पीछे तीन कारण था – पहला, एक ही स्नेहक पदार्थ का प्रयोग करते-करते मन ऊब सा गया था, दूसरा, लोशन एक आकर्षक
डिब्बे में बंद रहती है और दिखने में सुन्दर लगती है और तीसरा, सुगंध| ये तो
जगजाहिर है कि सुन्दरता के साथ सुगंध का समायोजन होने पर वह न केवल आकर्षण का केंद्र
होती है बल्कि मूल्यवान भी हो जाती है| “सोना में सुगंध” वाला मुहावरा भी तो इसको
ही ध्यान में रखकर गढ़ा गया है| तो इस प्रकार गाँव से जैसे–जैसे दूर होता गया
सरसों का तेल मेरी त्वचा से फिसलती चली गई तथा मैं सुंगंधयुक्त सुंदरी के गिरफ्त
में फँसता चला गया|
अपनी त्वचा को प्राकृतिक प्रकोप से बचाने तथा बढती जा रही उम्र को धोखा देकर स्वंय को जवान बनाए रखने के लिए मैं प्रतिदिन सुबह स्नानादि के
बाद उसका उपयोग करता हूँ| मुझे नहीं पता था कि किसी पर इतना निर्भर नहीं होना
चाहिए जिससे कि वह अपना गुलाम ही बना ले| ऐसा ही तो हुआ था – पहले मैं अपनी इच्छा
से उसका सदुपयोग करता था, किन्तु आज उसने मुझे बाध्य किया कि अब से शाम में भी उसकी
कोमलता को अपनी त्वचा पर लेपन करें|
यही सोच रहा हूँ, सचमुच मानव अपनी इच्छाओं का गुलाम ही तो है| जैसे–जैसे हम तथाकथित सभ्य होते गए हैं, हमारी आवश्यकताएँ बढती गई और हमने
प्रकृति से, प्राकृतिक वस्तुओं से अपना नाता ही तोड़ लिया तथा कृत्रिमता और यंत्र का
सहारा लेकर यंत्र मात्र रह गए हैं| स्वछंदता के स्थान पर गुलामी का जीवन जीने के
लिए अभिशप्त|
hahaha ....gudgudaa diya chhote. :-D
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