Sunday 15 September 2013

एक यात्रा वैष्णो देवी की


   कुछ दिन पीछे ही वैष्णो देवी की यात्रा सम्पन्न करके वापस दिल्ली पहुँचा हूँ वहाँ मैंने देखा आस्थाओं का एक ऐसा सैलाब जो उमड़कर दूर निर्जन पहाड़ों में अपने विश्वास की अटूटता को कायम रखने के लिए वैष्णो देवी की छोटी सी शिला पिंड के दर्शन हेतु बड़ी-बड़ी शिलाओं को पार करते हैं उस आस्था की निर्मल गंगा को नमन, उस विश्वास की प्रचंडता को नमन और नमन मानव मन के सँकरे गह्वर में बसी उस पवित्र भावनाओं को भी, जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी आस्था को क्षीण नहीं होने देती, अपने विश्वास की डोर कटने नहीं देती और गह्वर में बसी पवित्र भावनाओं को जिन्दा रखती है।
   आज जबकि देश में सांप्रदायिक शक्तियाँ धर्म और मजहब को पेशा बनाकर इंसानों  में नफ़रतों और साम्प्रदायिक उन्माद की भावनाओं के रावण को उत्तेजित करने का कुकृत्य कर रही है और उस पर अपने स्वार्थ की रोटी सेंक रही है, वहाँ मैंने देखा अपने मजहब को भूलकर धर्म-पथ पर चलने में असमर्थ तीर्थ यात्रियों को अपने पीठ पर बीठाकर ले जाने वाले मुस्लिमों को। मैंने देखा भारत के सुदूर दक्षिण में बसे इसाई परिवारों को और कुछ सिख परिवारों को भी जो इस तथाकथित हिन्दुओं के जन्मसिद्ध अधिकार वाले तीर्थस्थलों का भ्रमण इसलिए भी करते हैं क्योंकि वह हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत है। वास्तव में श्रद्धालुओं का कोई धर्म नहीं होता, वह तो धर्म, मजहब और जाति-पाँति के संकीर्ण मानसिकता से परे होता है। उसे तो अपने श्रद्धेय पर अटूट विश्वास होता है और रिश्ता, भक्त - भगवान का बन जाता है।
   यदि श्रद्धेय और श्रद्धालुओं के बीच का रिश्ता इसी कदर अटूट बना रहा।  यदि लोग इसी तरह अपने धर्म, मजहब और जाति-पाँति को भूलकर इस धर्म-पथ को अपना कर्तव्य-पथ बनाने लगे और स्वंय को इस संकीर्ण दीवारों की कैद से मुक्त कर एक दूसरों के साथ इंसान-इंसान और भाईचारा का रिश्ता कायम करने लगे तो वह दिन दूर नहीं होगा जब देश से असामाजिक तत्व नष्ट हो जाएंगे और हमारा देश विश्व शांति का अग्रदूत बन जाएगा वैष्णो देवी से हमारी यही प्रार्थना है जय माता दी

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