Wednesday 9 May 2012

विकृत लोकतंत्र

लोकतंत्र में लोक गौण है, तंत्र बना प्रधान,
वोट बैंक जनमानस की, आई आफत में जान।

क्या करूँ, किसको छोडू, किसे स्थान दू पहला,
थोक रूप में आपदाएं, सब नहले पे दहला ।

'भू' माने है पृथ्वी और 'ख' माने आकाश,
भूख भी इतनी बड़ी पहले इसकी बात ।

व्यर्थ हुई भूखे जनता की बार - बार चित्कार,
संसद में कोहराम मचा है, और बहरी सरकार ।

सांसदों के झगडे में जनता जांता बीच,
खुद दंगा फैलाते देते एकता की सीख ।

खाकी वर्दी में छुपा है पैशाचिक रूप,
आगे कुआँ, पीछे खाई और धूप ही धूप ।

मेडल पाने की होड़ चहुँ दिश, फैलाया जवान,
आतंकी के नाम पर, ले बेकसूर की जान ।

जनता प्यासी, कुआं प्यासा, खुद प्यासी तालाब,
कहा गया वह वायदा, हे इच्छाधारी नाग ।

उलटी गंगा बह रही है, कृषक हुए बर्बाद,
औद्योगीकरण की 'सेज' लगाया कृषक भूमि में आग ।

कही पे सूखा, कही पे आया बाढ़ भयंकर रूप,
वृक्ष कटे जंगल घटे, किसकी है करतूत ।

जंगल की स्तब्धता भी हो गयी विलीन,
जंगली जीवन ऐसे जैसे जल में प्यासी मीन ।

इतनी बड़ी विपत्ति, मानों जीवन जी का जंजाल बना,
हरिश्चंद्र 'अंधेर नगरी' इसी स्थल के लिए बना ।

जो भी पढ़े हो प्रण कर लो की बस मन न बहलाओगे,
लोकतंत्र में लोक प्रथम करने तत्पर हो जाओगे ।


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