तुम्हारा सामीप्य मुझे देता है
जाड़े की धूप का सा अहसास,
नहीं - नहीं एक अनुभूति है खास,
जिसे पाने के लिए
ऋषि-मुनि और साधुगन
पर्वत कंदराओं में करते है तपस्या,
अपने ईष्ट से मिलन की ख़ुशी में,
जैसे साडी नदियाँ
सूफियों की तरह करती है किल्लोल,
पेड़- पौधे और फूलों के चेहरे
बसंतागमन के समय जिस तरह,
हो जाता है खुशियों से सराबोर,
जिसे पाने के लिए हवायें
हार-हार करती है चित्कार,
ग्रह अपने पथ से अनजान
उसे पाने के लिए ही,
एक ही पथ पर लगाता जा रहा है चक्कर,
सीपियाँ सालों-सालों तक
अपना सम्पुट खोले रहती है,
कोयलों की कूक नहीं होता है उसका गान,
क्या तुम्हे नहीं पता,
बसंत में कूक कर वो क्या कहती है?
कहती है, तुम्हारा असामिप्य
मुझे करता है निराश,
तुम क्यों नहीं रहते,
हरवक्त, हमेशा, हमारे ही पास?
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