पंकज जी ने फटाक से दरवाजा बंद कर लिया और यहाँ तक कि उस दिन खोला ही नहीं | अगले दिन जब पंकज जी के समक्ष यही प्रसंग पुनः खोदा गया तो वो मुस्कुरा भर दिए | उन्होंने फिर खुद ही बताया कि किरण ने ग्याहरवीं में नवोदय छोड़कर दरभंगा में ही रहने का फैसला किया है -
"यहाँ मेडिकल की अच्छी तैयारी होती है न इसीलिए, स्कूल के साथ - साथ मेडिकल की भी तैयारी करेगी" | "आपने कहा था क्या पंकज जी, यहीं पर रहो दरभंगा में ही"
"हाँ मैंने एक बार ये तो कहा था कि नवोदय जहाँ पर है वहाँ तो मेडिकल की कोचिंग भी नहीं है, इस पर खुद उसी ने कहा कि ग्यारहवीं में यहीं रहूँगी"
"चिंता नहीं करने का पंकज जी हमलोग किसी को नहीं बताएँगे और कभी कुछ मदद की जरूरत हो तो हमलोग हैं ही यहाँ पर, मतलब नो चिंता नो फिकर"
पंकज जी को हमारी मित्रता की वफादारी पर कोई शक नहीं था | वो जानते थे कि हमलोग उनके इस नव अंकुरित प्रेम प्रसंग का ढ़ोल पीटकर उस पर पाला नहीं पड़ने देंगे | इसीलिए वो आश्वस्त होकर इस पौधे को वटवृक्ष बनाने के लिए नियमित रूप से सिंचाई कार्य में जुट गए |
ग्रेजुएशन में नया-नया एडमिशन ही लिया था और कॉलेज तो रामभरोसे ही चलता था इसीलिए शुरूआती कुछ सप्ताह के बाद कॉलेज जाना लगभग परमानेंट ही बंद कर दिया पंकज जी ने | दरभंगा जैसे छोटे शहरों में भी प्रोफेसर और टीचर कॉलेज में क्लास इसीलिए भी नहीं लेते थे ताकि छात्रों की भीड़ उनके कोचिंग संस्थानों में इकट्ठी हो और वह अपनी नियत सैलरी के अलावा भी छात्रों से धन बटोर सके | विशेषकर विज्ञानं के छात्रों के समक्ष कोचिंग पढने की मजबूरी हो जाती थी और प्रायः सभी छात्र कोचिंग व्यवस्था के इस मकरजाल में उलझ ही जाता था |
पंकज जी भी उसी समय कोचिंग जाते जिस समय किरण स्कूल जाती और सारा कोचिंग शाम तक समाप्त कर दोनों साथ ही आते | लेकिन, दोनों का साथ घर से कुछ आगे जो हनुमान मंदिर था वहाँ से आरंभ होता और वहीँ पर ख़तम ताकि कॉलोनी वालों तक इस खिचड़ी की गंध न पहुँचे | ये जिन्दगी हनुमान मंदिर से शुरू हनुमान मंदिर पर ख़तम टाइप की स्थिति थी दोनों की |
पंकज जी की यह यात्रा बदस्तूर और लगातार जारी रही कल -कल करती नदी की उच्छृंखल धार की तरह | इसके सामने आने वाली छोटी- छोटी स्कूल की छुट्टीनुमा रुकावटें भी बहती चली गई | जब स्कूल में छुट्टी होती तो किरण यह बहाना करती घर में कि "मम्मी आज एक घंटा पहले से ही कोचिंग होगा, स्कूल में छुट्टी हैं न इसीलिए" | पंकज जी की जब कोचिंग में छुट्टी होती तो वह भी नियत समय पर हनुमान मंदिर से किरण के स्कूल तक की यात्रा के लिए निकलना न भूलते गोया कि तीर्थयात्रा कर रहे हों |
मुझे पता नहीं है, लेकिन बखूबी अंदाजा है कि शायद प्रेम करने वालों को एक दूसरे के साथ वक्त गुजारना काफी अच्छा लगता है | इसीलिए तो प्रेम की कसमें हमेशा साथ रहने, साथ जीने, साथ मरने की ही होती है अर्थात हर स्थिति में एक दूजे के लिए बन कर साथ-साथ रहने की अटूट इच्छा चाहे स्थिति सुखद अथवा दुखद |
पंकज जी और किरण इस प्रेम-पथ पर आगे बढ़ चले थे और ईशारेबाजी से आरंभ कर छोटा-छोटा साथ की गली से गुजर रहे थे | दोनों की यही तमन्ना थी - कैसे छोटा को बड़ा किया जाय, गली से हाईवे पर पहुँचे और इसकी रफ़्तार जिन्दगी की रफ़्तार से घुल-मिल जाय | परस्पर साथ रहने की भावना का लोप हो जाय और उसके बदले हम साथ-साथ हैं के प्राप्य का समावेश हो जाय | अभी तो काफी लम्बा रास्ता तय करना था दोनों को, जहाँ रस्ते में कांटे भी हैं फूल भी, चन्दन भी हैं धूल भी और जाना है बड़ी दूर बटोही |
http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/ शुक्रवारीय अंक १३/१२/१३ में आपकी इस रचना को शामिल किया जा रहा हैं कृपया अवलोकन हेतु पधारे .धन्यवाद
ReplyDeletebahut bahut aabhar Nilima aunty and a lot of thanks :)
Deleteविवेक भाई, अच्छा लिखते हो, बारीक ऑब्जेरवेशन है...अगली पोस्ट का इंतजार हैय़
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