Friday 8 November 2013

अथ पंकज पुराण: बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी (2)

(कहानी में तारतम्यता बनाए रखने के लिए कृपया सर्वप्रथम - "बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी (1)" पढ़ें http://vivekmadhuban.blogspot.in/2013/10/1_23.html )
        
        माँ उतर रही है धीरे - धीरे अपने सैंडिल से सीढियों को पुचकारते हुए | चाल और चेहरा दोनों में गर्व झलक रहा है | किरण दीवाल की ओट से निकल माँ के साथ हो लेती है और ग्रिल से बाहर निकलने लगती है | दोनों की पीठ पंकज जी की खिड़की की तरफ है | किरण की आँख ग्रिल की कुण्डी पर है और ध्यान पंकज जी की खिड़की पर | अपनी पीठ पर दो आँख गड़ी हुई महसूस कर रही है, मन में गुदगुदी होती है और गर्दन नत हो जाती है | 
        ग्रिल से बाहर निकल किरण ने कुण्डी लगाई और खिड़की की तरफ चोर नजरों से देखा एक बार, पंकज जी मैदान में डटे हुए हैं | पहली बार दोनों की आँखें चार हुई और इधर किरण पुनः गर्दन नत कर शर्मा आंटी के घर के लिए माँ के पीछे हो ली | पंकज जी दोनों हाथों से अपने हार्ट को दबाये खिड़की के नीचे दुबक गए | किसी लड़की से जब आँखों ही आँखों में बाते होती है तो मन पुलकित क्यों हो जाता है ? बातें न भी हो, मौन भी क्यों धड़कन बढ़ा देता है? अजीब विरोधाभास है- धड़कन बढ़ भी जाती है लेकिन हार्ट अटैक का खतरा तक नहीं होता | उत्तर - पता नहीं - पंकज जी अपने ही प्रश्न के आगे निरुत्तर थे | 
        शर्मा आंटी के घर पहुँचकर मम्मी ने कॉलबेल का स्विच दबाया, पाँच मिनट तक किसी ने भी कोई उत्तर नहीं दिया अन्दर एकदम सन्नाटा पसरा रहा | शायद बाहर स्विच तो था लेकिन अन्दर बेल ही ख़राब थी | ग्रिल की कुण्डी खटखटाई तो अन्दर से एक सुरीली आवाज जिसमें जानबूझकर भारीपन लाई गई थी - "कौन है, इतना जोर से खटखटा रहा है ग्रिल को, तोड़ ही दो इससे अच्छा" - शर्मा आंटी की आवाज थी ये - "अरे आप, आइये-आइये, आ जाओ किरण बेटी, ये पता नहीं कौन सब आ जाता हैं और जोर-जोर से पीटने लगता हैं, हथौरा चला रहे हों जैसे, बुरा मत मानियेगा"- शर्मा आंटी शर्मिंदा होकर कुछ दीन स्वर में बोली थी | किरण की माँ समझ रही थी इस बात को | उन्हें भी तक़रीबन प्रतिदिन इस तरह की मुसीबतों से दो-चार होना पड़ जाता था - "बुरा क्यों मानेंगे भला, हमारे ग्रिल को तो लोंगो ने पीट-पीट कर बदरंग बना दिया है, लेकिन अब तो कॉलबेल लगवा दी है मैंने फिर भी लोगों को दिखता ही नहीं" | "हाँ बहुत अच्छा किया, मैं तो इनसे कह-कहकर थक गई कॉलबेल ठीक करवाने के लिए पर ये मेरी सुनते ही कब हैं"- आंटी ने प्रतिउत्तर में कहा - "अच्छा एक मिनट बैठिये मैं चाय बना लाती हूँ" |
"रहने दीजिये चाय-वाय कुछ ही देर में चले जायेंगे इनका टेलीफोन आने वाला है"
"नहीं-नहीं बिना चाय-नाश्ता के नहीं जाने दूंगी मैं, ऐसे भी आप आती ही कब हैं और किरण बेटी भी आई है आज " - शर्मा आंटी इतना कह झटपट किचन में घुस गई |
        किरण को समय काटना पहाड़ सा लग रह है | सोच रही कि कितनी जल्दी यहाँ से उड़कर अपनी बालकोनी में चली जाती | मन ही मन आंटी को कोसती है - "शर्मा आंटी भी न कितना व्यवहारिक होने लगती है, चाय-नाश्ता तो सभी अपने घर से ही करके आते हैं" | किरण बहुत व्यग्र हो रही है, बार-बार घड़ी देख रही है, उठक-बैठक कर रही है किन्तु माँ और आंटी किरण के इस मानसिक उथल-पुथल से अनभिज्ञ कॉलोनी की सारी महिलाओं का कच्चा-चिट्ठा टी-टेबल पर फैलाती जा रही है |
        खैर जैसे-तैसे कॉन्फ्रेस समाप्त हुई और समय का घोडा लंगड़ाते ही सही वह फासला भी तय कर लिया जब किरण अपनी बालकोनी में कुर्सी लगाकर और हाथ में पुस्तक लेकर ऐसे ही जम गई जैसे खिड़की पर पंकज जी |
        ये तो हो गया भैया - फर्स्ट साईट लव वाला मामला | निष्कर्ष यही निकला कि किरण न केवल पढने में होशियार है बल्कि पद्मावत की नागमती की तरह "दुनिया-धंधा' में भी कम बुद्धिमान नहीं है | इसीलिए तो पंकज जी के आँख के इशारे को पलक झपकते ही आत्मसात कर लिया उसने | कहा भी गया है - बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी | 

(आपका बहुमूल्य कमेन्ट हमारे लेखनी की जीवन-शक्ति है)

11 comments:

  1. वाह ! बहुत अच्छी कहानी है विवेक भैया | शीर्षक भी बहुत खूब चुना है आप ने | कहानी में पात्रों का चारित्रिक विश्लेषण बहुत बारीकी से किया गया है | उद्देश्य की दृस्टि से भी कहानी सफल है |

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    1. शुक्रिया शिव शंकर पटेल जी

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  2. आपका बहुत बहुत शुक्रिया नीलिमा शर्मा आंटी :)

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  3. बहुत सुंदर शैली में चरित्र चित्रण किया .बधाई !
    पर .....कथा में घटनाएं कि कमी ...कुछ अधूरी सी ...प्यास जगती और और ..........और

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  4. आपकी प्यास का आगे ध्यान रखा जाएगा अरविन्द सर, आपका आभार

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  5. Really v interesting vivek ji,now m curious to know who will propose firstly...


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    1. आभार आपका मीनक्षी दी, धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय - माली सींचत सौ घड़ा ऋतु आये फल होय :)

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  6. यार तू भी न ... कमबख्त तू मेरा भाई क्योँ नहीं ..साला नौकरी छुडवा के लिखवाता रहता....... एक सुकून है तुमको पढने में :)

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    1. ओये प्रवीण भैया ये किसने कहा कि हम भाई नहीं हैं, हांय बोलिए, थैंक्स आपका कोटि-कोटि

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