कब से देखा है तुम्हारी बाट एकटक .
नैनों में अश्रुजल छलका,
विरह भाव है यह पल- पल का,
हृदय में ऐसी अगन लगी है
अगन हो मनो दावानल का,
खड़ा राह पर पंथ निहारा शाम-रात तक.
चीखें सुन स्तब्ध हो मानो सभी हवाएं,
चूका जा रहा अब मेरी सारी क्षमताएँ,
अब तक अपनी आसूं से भीगे पलकों से
लिखा है मैंने कई मेघदूत, कई ऋचाएं.
पूछा गंगा की लहरों से सागर तट तक.
घने बसे यादों के तेरे इस जंगल में,
किस विशेष तरु- तल बैठूं मै इस विह्वल में,
सशरीर मुझे गल-गल आसूं बन जाने दो
धस जाने दो खुद से निर्मित इस दल-दल में.
पूछा घनी घटा से लेकर मस्त पवन तक.
बाट जोहता एक जनम नहीं, जनम- जनम तक.
विरह रस की मार्मिक रचना..मन भाव-विह्वल हो उठा.
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